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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचन

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2678
आईएसबीएन :0

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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचन

प्रश्न- पाश्चात्य साहित्यलोचन और हिन्दी आलोचना के विषय पर विस्तृत लेख लिखिए।

उत्तर -

पाश्चात्य साहित्यालोचन और हिन्दी आलोचना - सामान्यतया यह माना जाता है कि आलोचना का प्रादुर्भाव लक्ष्य ग्रन्थों एवं सरल साहित्य के सृजन के उपरान्त होता है, परन्तु सर्वदा ऐसा होता हो, यह आवश्यक नहीं है और विचारक यही कहते हैं- कई बार कलाकार विशेष रूप से जागरूक कलाकार, रचना करने से पूर्व अपने मस्तिष्क में एक निश्चित आदर्श की कल्पना कर लेता है और लिखते समय इसके अनुकूल बने रहने का प्रयन्त करता है। ऐसी दशा में कलाकृति से पूर्व आलोचना का उद्भव सिद्ध होता है, और यदि यह कंथन कुछ अतिरंजित प्रतीत होता हो, तो भी यह तो मानना ही होगा कि आलोचना का विकास साहित्य-निर्माण के साथ-साथ होता रहता है और आलोचना की प्रचीनता को प्रतिपादित करते हुए यही कहा जाता है, कि प्रकृति के प्रांगण में मानव ने जब सर्वप्रथम अनुभव किया कि आज का मौसम कल की अपेक्षा "सुन्दर है, अथवा यह स्थान से अधिक दुःखद है या उससे ऐसे ही कुछ अनुभव प्राप्त किये, उसी दिन आलोचना का उदय हुआ।

इस प्रकार पाश्चात्य आलोचना का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है और हमें पाश्चात्य जगत में काव्यशास्त्र की समृद्ध परम्परा के दर्शन होते हैं। यद्यपि कुछ विचारक पाश्चात्य आलोचना के इतिहास को उद्भव काल एवं अन्धकार काल, पुनर्जागरण काल, नव्यशास्त्रवादी, स्वछन्दतावादी काल एवं आधुनिक काल नामक छह कालों में निम्नलिखित तीन कालखण्डों में विभाजित करना सुविधाजनक मानते हैं -

(1) प्राचीन काल - ई.पू. 5वीं शती से ई. 4वीं शती तक
(2) मध्यकाल - ई. चौथी शती से 15वीं शती तक।
(3) आधुनिक काल -16वीं शती से अब तक।

अब हम यहाँ उक्त तीन कालखण्डों के अन्तर्गत विकसित एवं पल्लवित पाश्चात्य आलोचना का संक्षिप्त परिचय देंगे।

(1) प्राचीन काल (ई.पू. पाँचवीं शती से ई. चौथी शती तक)

पाश्चात्य आलोचना का प्राचीनतम रूप - कभी-कभी कतिपय विद्वान् अंग्रेजी साहित्य को भी पाश्चात्य साहित्य का सब कुछ या मूल समझने की भूल कर बैठते हैं, पर वास्तव में पाश्चात्य साहित्य का मूल प्रामाणिक उद्गम यूनान या ग्रीस है। सत्य तो यह है, कि अंग्रेजी साहित्य का इतिहास मुश्किल से सात-आठ सौ वर्ष प्राचीन होगा जबकि पाश्चात्य साहित्य का इतिहास ढाई हजार वर्ष से भी अधिक पुराना है। इस प्रकार, प्राचीन पाश्चात्य काव्य शास्त्रीय चिन्तन का यूनान या ग्रीस ही था, और हमें पाश्चात्य आलोचना का प्राचीनतम रूप होमर के महाकाव्य 'इलियड' और 'आडेसी' में मिलता है।

वस्तुत: होमर के समृद्ध काव्य को देखकर यह भी अनुमान किया जाता है कि होमर के पूर्व भी यूनान में साहित्य, साहित्य-सृजन होता रहा है, लेकिन होमर के पूर्व की कृतियाँ उपलब्ध नहीं हैं। यहाँ यह भी ध्यान में रखना होगा कि उस युग में होमर के द्वारा रचित महाकाव्यों के अतिरिक्त भी अन्य कई महाकाव्यों की रचना हुई है। अतएव यहाँ यह कल्पना की जा सकती है कि साहित्य के इस सर्वाधिक सशक्त माध्यम और अन्य अंगों के सम्बन्ध में भी किन्हीं सैद्धांतिक आदर्शों का स्वरूप उस समय निश्चित रूप से होगा परन्तु उक्त सामग्री अब उपलब्ध नहीं है। साथ ही होमर के साहित्य सिद्धांतों या साहित्य विषयक मान्यताओं का भी कोई विवरण स्वतंत्र रूप से उपलब्ध नहीं होता और 'इलियड' एवं 'आडेसी' नामक दोनों महाकाव्यों का तयुगीन सभ्यता एवं संस्कृति के परिचय की दृष्टि से ही असाधारण महत्व माना जाता है। इतना होते हुए भी होमर का यह मत अवश्य प्रचलित है। काव्य का ध्येय आनन्द प्रदान करना होना चाहिए।

होमर के पाश्चात् हेसियड, पिंडार, गोर्जियास और एरिस्टोफेनीज आदि विचारकों ने भी प्राचीन यूनानी आलोचना साहित्य को विकसित किया है, लेकिन यूनान के प्राचीन चिन्तकों में सुकरात (सीक्रीटीज) का विशिष्ट स्थान माना जाता है। सुकरात का समय 469 ई. पू. से लेकर 399 ई. पू. तक माना गया है और साहित्य के विविध अंगों में एवं सुकरात के मंतव्य मूलाधार और चिन्तनात्मक तत्वों के रूप में मान्य है। यद्यपि सुकरात ने किसी कृति की रचना नहीं की और उनकी किसी कृति का उल्लेख भी नहीं मिलता है, पर उसकी वैचारिक स्थापनाओं के संकेत उसके शिष्यों और परवर्ती विचारकों के ग्रंथों में अवश्य मिलते हैं। साधरणतः सुकरात ने धर्म, नीति, ज्ञान, दर्शन और राजनीति आदि के सम्बन्ध में विचार व्यक्त किये हैं तथा यूनान में नीतिपरक आलोचक के विकास का श्रेय सुकरात को ही दिया जाता है। यहाँ यह स्मरणीय है कि सुकरात के ही प्रमुख शिष्यों प्लेटो को पाश्चात्य काव्यशास्त्र का प्रवर्तक कहा जाता है और यहाँ उसके सिद्धांतों का कुछ विस्तृत परिचय देना आवश्यक है।

पाश्चात्य आलोचना के आदि आचार्य प्लेटो -   प्लेटो का समय 427 ई. पूर्व से 348 ई. पू. तक माना जाता है और यूनान के प्राचीन दार्शनिकों एवं कला-मर्मज्ञों में उनका सर्वोच्च स्थान है। वास्तव में प्लेटो दर्शनशास्त्र के प्रगाढ़ पंडित थे और उन्होंने तीस से अधिक संवादों या कथोपकथनों (वार्तालाप) के माध्यम से विषय की चर्चा की। इन संवादों में से फेडरस, इओन और रिपब्लिक नामक संवादों में प्लेटो के आलोचना सम्बन्धी सिद्धांत भी हैं। अतः उनके आधार पर प्लेटो का काव्यशास्त्रीय दृष्टिकोण स्पष्ट किया जा सकता है। यद्यपि प्लेटो ने आलोचना के सम्बन्ध में क्रमबद्ध रूप से विचार व्यक्त नहीं किये और प्रायः स्फुट रूप में ही उसके आलोचनात्मक विचार प्राप्त होते हैं तथा वे किसी अंतिम निर्णय पर भी नहीं पहुँचते, लेकिन इतना होते हुए भी प्लेटो की साहित्य विषयक मान्यताएँ इतनी गंभीर और मौलिक हैं कि पाश्चात्य काव्यशास्त्र का आरम्भ उन्हीं से माना जाता है।

प्लेटो का काव्यशास्त्रीय दृष्टिकोण - प्राचीन यूनान में जिस अनुकरणात्मक सिद्धांत का प्रवर्तन होमर ने किया था, उसका सबसे प्रबल तुष्टीकरण प्लेटो ने किया और इसी सिद्धांत को आधार बनाकर उन्होंने विविध विषयक विचार व्यक्त किये हैं। इस प्रकार प्लेटो का दार्शनिक सिद्धांत यह था कि "जो कुछ भी कर्म इस पार्थिव संसार में देखते, सुनते व अनुभव करते हैं, उन सबका मूलरूप स्वर्ग में स्थित है। मानव की आत्मा जब स्वर्ग में रहती है, तो इन मूल रूपों को सहज ही पहचानती है और उन्हीं के सम्पर्क में रहती है, परन्तु जब हम इन मूलरूपों का अनुकरण कर इस पार्थिव जगत में प्रवेश करते हैं तो हमें उसकी छायामात्र ही मिलेंगी, और जब साहित्यकार इनका अनुकरण अपनी रचनाओं में करेगा, तो वह सत्य (मूल रूपों से) और भी दूर जा पड़ेगा। काव्य इस दृष्टिकोण से हमें बहुत दूर ले जाता है और उसके द्वारा मत्स्यानुभूति असंभव होगी।' इस प्रकार, प्लेटो की दृष्टि में काव्य या साहित्य का आदर्श, नागरिक के सत्य की शिक्षा नहीं प्रदान करता और इसीलिए प्लेटो ने अपने आदर्श में साहित्यकार या कवि को कोई स्थान नहीं दिया है।

अपने 'अयोन' नामक ग्रन्थ में प्लेटो ने अवश्य कवि का स्वरूप-विवेचन किया है और उनका कहना है "कवि का मन सूक्ष्म, चलायमान और पवित्र वस्तु है और तब तक युक्तिहीन है, जब तक कि उसे दैनिक प्रेरणा नहीं मिलती और स्वयं इन्द्रियशून्य और बुद्धिविहीन नहीं हो जाता। जब तक वह इस अवस्था को प्राप्त नहीं होता, तब तक वह शक्तिविहीन है और अपनी गूढोक्तियाँ कहने में असमर्थ है। इसी प्रकार प्लेटो ने 'रिपब्लिक' नामक ग्रन्थ में कविता एवं चित्रकला को समकक्ष माना है और काव्य का वर्गीकरण गीत, नाटक एवं महाकाव्य नामक तीन भागों में विभक्त किया है। साथ ही उन्होंने नाटक की चर्चा करते हुए ट्रेजिडी और कामेडी की भी चर्चा की है, पर उन्होंने ट्रेजिडी को महाकाव्य की अपेक्षा हीन माना है।

सामान्यतया विचारक प्लेटो के काव्य सम्बन्धी विचारों की विवेचना करते समय उसके द्वारा कविता पर लगाए गए आक्षेपों को अवश्य उल्लेख करते हैं और डॉ. रामदत्त भारद्वाज का यही मत है कि "प्लेटो ने कविता पर दो आक्षेप किये हैं। प्रथमतः उनके अनुसार, कला प्रकृति की अनुकृति है। बुद्धिपूर्ण अनुकृति के द्वारा प्रकृत वस्तुओं की नकल यथावत् सी होती है। चित्रकला इसका अच्छा उदाहरण है, उनके अनुसार यह दृश्यमान संसार (अर्थात व्यवहार जगत्) वास्तविक वैचारिक (आइडियल) जगत् की प्रतिकृति है। उदाहरणस्वरूप जिस कुर्सी पर आप बैठे हैं, इसका निर्माण किसी बढ़ई ने उस आदर्श (नमूने) के अनुसार किया जो उसको दिया गया था। प्लेटो का तर्क इस प्रकार है यह, व्यवहार जगत् वास्तविक जगत् की नकल है। चित्र के द्वारा उसकी नकल और भी अधिकतर नकल है। नकल तो नकल ही होती है। चित्रकला नकल की नकल है। अर्थात् दुगुनी नकल है कोई भी कला, नकल की नकल होने के कारण हेय है। अतएव हमें उसकी ओर ध्यान नहीं देना चाहिए। द्वितीयतः कविता श्रृंगार और सौन्दर्य की भावना के कारण श्रेय से दूर रहती है और करुणा आदि कटुभाव भी चित्र को विगलित या उद्वेलित करते हैं। प्लेटो के लिए काव्य आकर्षक, सौन्दर्यपूर्ण, प्रेम या पवित्र होना कोई मूल्य नहीं रखता। उनके लिए साहित्य (या कला) का मूल्य कब तक है, जब तक मनुष्य को अच्छा नागरिक बनाने के लिए उपयोगी सिद्ध होता है। अतएव होमर तथा इलियट के काव्यों का बहिष्कार होना चाहिए और त्रादश एवं कामद का निष्कासन का भी। किन्तु यदि किसी काव्य में देवताओं की स्तुतियाँ अथवा श्रेष्ठ व्यक्तियों की प्रशास्तियाँ हों, तो उसे स्वीकार कर लेना चाहिए।

प्लेटो के उक्त दृष्टिकोण से यही स्पष्ट होता है कि उनके अनुसार काव्य या तो मिथ्या है या कदाचार का प्रेरक है, अतएव हेय है, पर यहाँ पर यह समझना उचित न होगा कि प्लेटो जो स्वयं कवि था, श्रेष्ठ कवि या श्रेष्ठ कलाकारों का विरोध था। सत्य तो यह है कि प्लेटो काव्य का उद्देश्य केवल आनन्द प्रदान करना ही नहीं मानता और वह तो साहित्य का मूल्यांकन सत्य से ही करने का पक्षपाती था। उन्होंने कविता का मुख्य प्रयोजन मानव चरित्र को प्रभावित करना और उसका निर्माण करना तथा आत्मा की प्रच्छन्न शक्तियों को प्रकाश में लाना ही स्वीकार किया है, तथा कविता के माध्यम से मनुष्य को अपना जीवन श्रेष्ठतम बनाने और जगत् के पुनर्निर्माण हेतु योग्य बनाने की ओर भी संकेत किया है। इस प्रकार, प्लेटो ने काव्य-कला को कठोर संयम और आत्मनियंत्रण पर आधारित माना तथा उसकी कसौटी पर सत्य बतलाया है। अतएव प्लेटो की सर्वाधिक महत्वपूर्ण देन यह है कि उसने मनुष्य को चिंतन की दिशा में प्रेरित कर उसे आलोचना प्रणाली की ओर उन्मुख किया है।

 

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- आलोचना को परिभाषित करते हुए उसके विभिन्न प्रकारों का वर्णन कीजिए।
  2. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  3. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकासक्रम में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के योगदान की समीक्षा कीजिए।
  4. प्रश्न- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की आलोचना पद्धति का मूल्याँकन कीजिए।
  5. प्रश्न- डॉ. नगेन्द्र एवं हिन्दी आलोचना पर एक निबन्ध लिखिए।
  6. प्रश्न- नयी आलोचना या नई समीक्षा विषय पर प्रकाश डालिए।
  7. प्रश्न- भारतेन्दुयुगीन आलोचना पद्धति पर प्रकाश डालिए।
  8. प्रश्न- द्विवेदी युगीन आलोचना पद्धति का वर्णन कीजिए।
  9. प्रश्न- आलोचना के क्षेत्र में काशी नागरी प्रचारिणी सभा के योगदान की समीक्षा कीजिए।
  10. प्रश्न- नन्द दुलारे वाजपेयी के आलोचना ग्रन्थों का वर्णन कीजिए।
  11. प्रश्न- हजारी प्रसाद द्विवेदी के आलोचना साहित्य पर प्रकाश डालिए।
  12. प्रश्न- प्रारम्भिक हिन्दी आलोचना के स्वरूप एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  13. प्रश्न- पाश्चात्य साहित्यलोचन और हिन्दी आलोचना के विषय पर विस्तृत लेख लिखिए।
  14. प्रश्न- हिन्दी आलोचना पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  15. प्रश्न- आधुनिक काल पर प्रकाश डालिए।
  16. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद से क्या तात्पर्य है? उसका उदय किन परिस्थितियों में हुआ?
  17. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए उसकी प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
  18. प्रश्न- हिन्दी आलोचना पद्धतियों को बताइए। आलोचना के प्रकारों का भी वर्णन कीजिए।
  19. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद के अर्थ और स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  20. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद की प्रमुख प्रवृत्तियों का उल्लेख भर कीजिए।
  21. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद के व्यक्तित्ववादी दृष्टिकोण पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  22. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद कृत्रिमता से मुक्ति का आग्रही है इस पर विचार करते हुए उसकी सौन्दर्यानुभूति पर टिप्णी लिखिए।
  23. प्रश्न- स्वच्छंदतावादी काव्य कल्पना के प्राचुर्य एवं लोक कल्याण की भावना से युक्त है विचार कीजिए।
  24. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद में 'अभ्दुत तत्त्व' के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए इस कथन कि 'स्वच्छंदतावादी विचारधारा राष्ट्र प्रेम को महत्व देती है' पर अपना मत प्रकट कीजिए।
  25. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद यथार्थ जगत से पलायन का आग्रही है तथा स्वः दुःखानुभूति के वर्णन पर बल देता है, विचार कीजिए।
  26. प्रश्न- 'स्वच्छंदतावाद प्रचलित मान्यताओं के प्रति विद्रोह करते हुए आत्माभिव्यक्ति तथा प्रकृति के प्रति अनुराग के चित्रण को महत्व देता है। विचार कीजिए।
  27. प्रश्न- आधुनिक साहित्य में मनोविश्लेषणवाद के योगदान की विवेचना कीजिए।
  28. प्रश्न- कार्लमार्क्स की किस रचना में मार्क्सवाद का जन्म हुआ? उनके द्वारा प्रतिपादित द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की व्याख्या कीजिए।
  29. प्रश्न- द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पर एक टिप्पणी लिखिए।
  30. प्रश्न- ऐतिहासिक भौतिकवाद को समझाइए।
  31. प्रश्न- मार्क्स के साहित्य एवं कला सम्बन्धी विचारों पर प्रकाश डालिए।
  32. प्रश्न- साहित्य समीक्षा के सन्दर्भ में मार्क्सवाद की कतिपय सीमाओं का उल्लेख कीजिए।
  33. प्रश्न- साहित्य में मार्क्सवादी दृष्टिकोण पर प्रकाश डालिए।
  34. प्रश्न- मनोविश्लेषणवाद पर एक संक्षिप्त टिप्पणी प्रस्तुत कीजिए।
  35. प्रश्न- मनोविश्लेषवाद की समीक्षा दीजिए।
  36. प्रश्न- समकालीन समीक्षा मनोविश्लेषणवादी समीक्षा से किस प्रकार भिन्न है? स्पष्ट कीजिए।
  37. प्रश्न- मार्क्सवाद की दृष्टिकोण मानवतावादी है इस कथन के आलोक में मार्क्सवाद पर विचार कीजिए?
  38. प्रश्न- मार्क्सवाद का साहित्य के प्रति क्या दृष्टिकण है? इसे स्पष्ट करते हुए शैली उसकी धारणाओं पर प्रकाश डालिए।
  39. प्रश्न- मार्क्सवादी साहित्य के मूल्याँकन का आधार स्पष्ट करते हुए साहित्य की सामाजिक उपयोगिता पर प्रकाश डालिए।
  40. प्रश्न- "साहित्य सामाजिक चेतना का प्रतिफल है" इस कथन पर विचार करते हुए सर्वहारा के प्रति मार्क्सवाद की धारणा पर प्रकाश डालिए।
  41. प्रश्न- मार्क्सवाद सामाजिक यथार्थ को साहित्य का विषय बनाता है इस पर विचार करते हुए काव्य रूप के सम्बन्ध में उसकी धारणा पर प्रकाश डालिए।
  42. प्रश्न- मार्क्सवादी समीक्षा पर टिप्पणी लिखिए।
  43. प्रश्न- कला एवं कलाकार की स्वतंत्रता के सम्बन्ध में मार्क्सवाद की क्या मान्यता है?
  44. प्रश्न- नयी समीक्षा पद्धति पर लेख लिखिए।
  45. प्रश्न- आधुनिक समीक्षा पद्धति पर प्रकाश डालिए।
  46. प्रश्न- 'समीक्षा के नये प्रतिमान' अथवा 'साहित्य के नवीन प्रतिमानों को विस्तारपूर्वक समझाइए।
  47. प्रश्न- ऐतिहासिक आलोचना क्या है? स्पष्ट कीजिए।
  48. प्रश्न- मार्क्सवादी आलोचकों का ऐतिहासिक आलोचना के प्रति क्या दृष्टिकोण है?
  49. प्रश्न- हिन्दी में ऐतिहासिक आलोचना का आरम्भ कहाँ से हुआ?
  50. प्रश्न- आधुनिककाल में ऐतिहासिक आलोचना की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए उसके विकास क्रम को निरूपित कीजिए।
  51. प्रश्न- ऐतिहासिक आलोचना के महत्व पर प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के सैद्धान्तिक दृष्टिकोण व व्यवहारिक दृष्टि पर प्रकाश डालिए।
  53. प्रश्न- शुक्लोत्तर हिन्दी आलोचना एवं स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी आलोचना पर प्रकाश डालिए।
  54. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के योगदान का मूल्यांकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
  55. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में नन्ददुलारे बाजपेयी के योगदान का मूल्याकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
  56. प्रश्न- हिन्दी आलोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी का हिन्दी आलोचना के विकास में योगदान उनकी कृतियों के आधार पर कीजिए।
  57. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में डॉ. नगेन्द्र के योगदान का मूल्यांकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
  58. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में डॉ. रामविलास शर्मा के योगदान बताइए।

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